उनमें बचपन से ही स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित हो गई थी तथा जैसे-जैसे बड़े हुये, विदेशी शासन से देश को मुक्त कराने का संकल्प लिया। उनके दृढ़ चरित्र निर्माण में माता जीजा बाई तथा दादा कोण्डदेव (कोणदेव) ने महान् योगदान दिया। दादा कोण्डदेव बड़े दूरदर्शी तथा देशभक्त थे। उन्होंने शिवाजी में नेतृत्व क्षमता का विकास किया तथा तलवार चलाना व घुड़सवारी में निपुणता दिलाई। देश के इतिहास, भूगोल तथा राजनैतिक दशा की स्थिति को भी शिवाजी को समझाया तथा यह कहा कि उन्हें भारत के इतिहास पर लगे दासता की बेडिय़ों का कलंक धोना है। दादा कोण्डदेव की शिक्षा का फल यह हुआ कि मात्र 14 वर्ष की आयु में ही शिवाजी तन, मन, बुद्धि व आत्मा से स्वस्थ, साहसी तथा तेजस्वी थे। शिवाजी पिताजी शाह जी की जागीर के माध्यम से राज्य प्रबन्ध, संचालन, शासन तथा प्रशासन की व्यवहारिक शिक्षा के साथ-साथ स्वयं सारी राज्य व्यवस्था चला सकते थे। वे जागीर की आर्थिक, सामाजिक दशा का पता लगाते तथा सुधार व विकास की योजनायें भी बनाते थे। वे अपराधियों, अन्यायियों तथा आंतकवादियों को समझाकर उन्हें सुधरने का अवसर भी देते थे।
शिवाजी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। उत्साह, तत्परता, स्फुर्ति, श्रमशीलता जैसे गुणों का भण्डार था। नियम, संयम, नियमित उपासना करना उनका नित्य कर्म था। वे व्यवहार कुशलता, वाकपटुता में निपुण थे तथा साथियों के साथ उपयुक्त व्यवहार करते थे। इन्हीं गुणों के कारण जागीर के सारे तरुण, नवयुवक व किशोर उनके अनुयाई बन गये थे तथा उन्हें अपना नेता मानते थे। शिवाजी ने कई जगह स्वयंसेवक दल के संगठन बनाये तथा धर्म व राष्ट्र भावना का प्रचार किया। उन्होंने धर्मग्रंथों के पठन-पाठन की रूचि पैदा की तथा गीता, रामायण, महाभारत व इतिहास की गोष्ठियां बनाकर पाठ प्रारम्भ करवाया तथा प्रचारक तथा प्रवक्ता तैयार कर दूर-दूर तक भेजे, जो प्रसुप्त हिन्दु जाति को जगाने का काम करते थे। उन्होंने चुने हुये साथियों की सैना बनाकर युद्ध व्युह एवं संचालन का व्यवहारिक अभ्यास कर लिया तथा उन्होंने जागीर की सारी जनता में संगठन व सैनिक भावना का जागरण कर दिया। शिवाजी में देश प्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ था तथा वे स्वराज के सच्चे हितैषी व शुभचिंतक थे।
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शिवाजी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। उत्साह, तत्परता, स्फुर्ति, श्रमशीलता जैसे गुणों का भण्डार था। नियम, संयम, नियमित उपासना करना उनका नित्य कर्म था। वे व्यवहार कुशलता, वाकपटुता में निपुण थे तथा साथियों के साथ उपयुक्त व्यवहार करते थे। इन्हीं गुणों के कारण जागीर के सारे तरुण, नवयुवक व किशोर उनके अनुयाई बन गये थे तथा उन्हें अपना नेता मानते थे। शिवाजी ने कई जगह स्वयंसेवक दल के संगठन बनाये तथा धर्म व राष्ट्र भावना का प्रचार किया। उन्होंने धर्मग्रंथों के पठन-पाठन की रूचि पैदा की तथा गीता, रामायण, महाभारत व इतिहास की गोष्ठियां बनाकर पाठ प्रारम्भ करवाया तथा प्रचारक तथा प्रवक्ता तैयार कर दूर-दूर तक भेजे, जो प्रसुप्त हिन्दु जाति को जगाने का काम करते थे। उन्होंने चुने हुये साथियों की सैना बनाकर युद्ध व्युह एवं संचालन का व्यवहारिक अभ्यास कर लिया तथा उन्होंने जागीर की सारी जनता में संगठन व सैनिक भावना का जागरण कर दिया। शिवाजी में देश प्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ था तथा वे स्वराज के सच्चे हितैषी व शुभचिंतक थे।
उनके व्यवहार, अनुशासन, विनम्रता तथा आचरण से बीजापुर के दरबार में शिवाजी के व्यक्तित्व की चर्चा होती रहती थी। जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी से शिवाजी से मिलने की इच्छा जाहिर की, तो शिवाजी ने अपने पिता शाहजी से स्पष्ट कहा कि बादशाह विधर्मी तथा अत्याचारी है, वह हिन्दुओं और हिन्दु धर्म का दुश्मन है। मन्दिर तुड़वाता है तथा हिन्दुओं को जबरदस्ती मुस्लमान बनाता है, गौ वध करवाता है। मैं बादशाह को कोरनिश करना तो दूर, उसकी सूरत भी देखना नहीं चाहता। यह शिवाजी की निर्भिकता, स्वाभिमान तथा अनुचित आज्ञा को न मानने को दर्शाता है। शिवाजी कहते थे कि 33 करोड़ हिन्दुओ के बीच मु_ीभर यवन सिंह की तरह शासन करें, यह लज्जापूर्ण बात है। इसका कारण हिन्दुओं में आपसी फूट, स्वार्थ तथा कायरता है, जिसके कारण हिन्दु यवन बादशाह को सलाम करते हैं। चूंकि वे स्वतंत्रता प्रेमी थे तथा पिता की तरह किसी सुलतान की जागीरदारी करना नहीं स्वीकारा था। उनका उद्देश्य था स्वतंत्र राज्य स्थापित करना तथा हिन्दु धर्म की रक्षा करना। शिवाजी ने कई बार युद्ध किये तथा सभी युद्धों में उनकी समयानुकुल कार्यप्रणाली तथा परिस्थिति के अनुसार चलने का गुण तथा छापामार युद्ध नीति के कारण शिवाजी ने मु_ीभर सैनिकों के साथ बड़ी-बड़ी मुगल सैनाओं को धाराशाही किया था तथा सभी युद्धों में शौर्य की पताका लहराई थी।
शिवाजी के हृदय में धर्म व गुरू के प्रति अपार श्रद्धा थी। वे परम गुरूभक्त व सच्चे कर्मयोगी थे। उन्होंने अपने गुरू रामदास को अपना राज्य सौंपकर, केवल उनके प्रतिनिधि व सेवक बनना स्वीकार किया। वे सभी धर्मों का आदर करते थे तथा मुसलमान संतों व फकीरों का भी सम्मान करते थे। वे कुरान का भी आदर करते थे। उनका धर्म मानव धर्म था। उन्होंने हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया। वे अपने अभियानों का प्रारम्भ अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे। वे एक अच्छे सेनानायक तथा अच्छे कूटनीतिज्ञ थे। जहां सीधे युद्ध लड़ नहीं पाते थे, वहां शत्रु की आँख में धूल झोंककर भाग जाते थे। उनके शासनकाल में कभी भी आंतरिक विद्रोह नहीं हुआ। 6 जून, 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हिन्दू रीति से हुआ। उन्होंने छत्र धारण किया और छत्रपति कहलाये। 1680 में उनकी मृत्यु हुई। अपने जीते जी उन्होंने मुगल शासकों से अपना लोहा मनवाया। ऐसे निष्काम भावना रखने वाले मातृभूमि के लिये समर्पित कुशल प्रशासक, यौद्धा एवं हिन्दु धर्म के प्रति प्रेम के लिये भारत के अमर सपूत शिवाजी को युगों-युगों तक याद किया जायेगा।
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सन् 1646 में बीजापुर राज्य की व्यवस्था बिगड़ जाने पर शिवाजी ने इस अवसर का पूरा लाभ उठाया तथा अपने मावलों सरदारों की सहायता से तोरण नाम किले के रक्षक को भुलावा देकर इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया तथा एक नया किला बनवाया, जिसका नाम राजगढ़ रखा। तत्पश्चात् शिवाजी ने बीजापुर राज्य की बहुत सी जमीन पर कब्जा जमाकर राज्य का क्षेत्र बढ़ाया तथा कोंडना (कोन्ढाणा) किले पर अधिकार जमाकर, उसका नाम सिंहगढ़ रख दिया। इसी प्रकार 1658 में जब दिल्ली के सिंहासन के लिये मुगल शहजादों में घमासान युद्ध छिड़ा तो शिवाजी ने स्थिति का लाभ उठाकर कई राज्य अपने कब्जे में कर लिये तथा कल्याण की खाड़ी में जहाज बनाये और अपनी जल सेना की नींव रखी। शिवाजी के सम्पूर्ण जीवन में वीरता की अद्भुत घटनाओं का परिचय मिलता है। अफजल खाँ का युद्ध भी उस घटना में एक है तथा उनके द्वारा की गई सिंहगढ़ की लड़ाई भी बहुत प्रसिद्ध है।शिवाजी के हृदय में धर्म व गुरू के प्रति अपार श्रद्धा थी। वे परम गुरूभक्त व सच्चे कर्मयोगी थे। उन्होंने अपने गुरू रामदास को अपना राज्य सौंपकर, केवल उनके प्रतिनिधि व सेवक बनना स्वीकार किया। वे सभी धर्मों का आदर करते थे तथा मुसलमान संतों व फकीरों का भी सम्मान करते थे। वे कुरान का भी आदर करते थे। उनका धर्म मानव धर्म था। उन्होंने हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया। वे अपने अभियानों का प्रारम्भ अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे। वे एक अच्छे सेनानायक तथा अच्छे कूटनीतिज्ञ थे। जहां सीधे युद्ध लड़ नहीं पाते थे, वहां शत्रु की आँख में धूल झोंककर भाग जाते थे। उनके शासनकाल में कभी भी आंतरिक विद्रोह नहीं हुआ। 6 जून, 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हिन्दू रीति से हुआ। उन्होंने छत्र धारण किया और छत्रपति कहलाये। 1680 में उनकी मृत्यु हुई। अपने जीते जी उन्होंने मुगल शासकों से अपना लोहा मनवाया। ऐसे निष्काम भावना रखने वाले मातृभूमि के लिये समर्पित कुशल प्रशासक, यौद्धा एवं हिन्दु धर्म के प्रति प्रेम के लिये भारत के अमर सपूत शिवाजी को युगों-युगों तक याद किया जायेगा।
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