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महावीर जयंती (21 अप्रैल, 2024) पर विशेष

 महावीर जयंती (21 अप्रैल, 2024) पर विशेष


जैन धर्म के प्रवर्तक एवं 24वें व अंतिम तीर्थंकर एक महान संत महावीर स्वामी


जैन धर्म के प्रवर्तक एवं 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी एक महान संत थे, जिन्होंने वैदिक धर्म व समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का डटकर विरोध किया तथा जैन धर्म का प्रसार किया। उनका जन्म 599 ई.पू. चैत्र मास शुक्ल पक्ष को हुआ। उनके बचपन का नाम वर्धमान था, पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। पिता क्षत्रियों के एक छोटे राज्य के सरदार थे। वर्धमान को बचपन से ही क्षत्रियोचित शिक्षा दी गई। राजा का पुत्र होने के कारण इनका प्रारंभिक जीवन सुख-विलास में बीता। युवा होने पर उसका विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ। उन्हें एक पुत्री प्रियदर्शना की प्राप्ति हुई, जिसका बड़ा होने पर विवाह जमालि क्षत्रिय के साथ हुआ। महावीर का यही दामाद उनका प्रथम शिष्य बना तथा उनकी मृत्यु के पश्चात् जैन धर्म का पथ प्रदर्शन करता रहा।

वर्धमान का स्वभाव प्रारम्भ से ही चिंतनशील था तथा उनका मन सांसारिक कार्यों में नहीं लगता था। जब वर्धमान 30 वर्ष के हुए, तब उनके पिता सिद्धार्थ का निधन हो गया तथा उनका बड़ा भाई मन्दिवर्धन राजा बना। वर्धमान अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर सांसारिक जीवन का त्याग कर सन्यासी हो गये तथा ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की। वे एक वर्ष एक माह तक एक ही वस्त्र पहने रहे। बाद में नग्न रहना प्रारम्भ कर दिया। 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की। शरीर की पूर्णत: उपेक्षा कर अनेकों कष्ट सहे। 

उनका शरीर सूख गया। उन्हें 13वें वर्ष में वैशाखी मास की दसवीं के दिन सरिता के तट पर एक वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति हुई, जिसे जैनी ‘केवल्य ज्ञान’ के नाम से पुकारते हैं। उन्होंने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था। इसलिए वे ‘जिन’ अर्थात् ‘विजेता’ कहलाये तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण वे ‘महावीर’ के नाम से विख्यात हुए। उन्हें ‘निग्रन्थ’ भी कहा गया, क्योंकि उन्होंने समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़ दिया था। ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर ने कौशल, मगध, मिथिला, चम्पा आदि राज्यों में भ्रमण किया तथा 30 वर्षों तक धर्म का प्रचार करते रहे। उन्होंने इस भ्रमण काल में अनेकों कठिनाइयों का सामना किया तथा मधुर वाणी एवं साहस व धैर्य के साथ वे निरन्तर आगे बढ़ते रहे।

महावीर स्वामी के अनुसार मोक्ष का दूसरा नाम निर्वाण है। कर्म फल से मुक्त होने पर मोक्ष प्राप्त हो जाता है। जैन धर्म के तीन मुख्य सिद्धांत - सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक आचरण हैं, जिन्हें त्रिरत्न कहा जाता है। सत में विश्वास रखना ही सम्यक श्रद्धा कहलाता है। सत्य का वास्तविक ज्ञान जिससे निर्वाण की प्राप्ति हो सके सम्यक ज्ञान कहलाता है। जीवन का समस्त इन्द्रिय विषयों में अनासक्त होना तथा सुख-दुख में सम व्यवहार करना सम्यक आचरण ही है।

सम्यक आचरण के अन्तर्गत महावीर ने जैन धर्म के साधकों को 5 महाव्रतों की पालना के लिए कहा है, जिसके अनुसार अहिंसा - जीव मात्र के प्रति दया का व्यवहार करना अहिंसा कहलाता है। मन, वचन, कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। इससे बचना चाहिए। इसी कारण जैन साधु नंगे पांव चलते हैं तथा पट्टी मुंह पर बांधना, पानी छानकर पीना, रात्रि को भोजन न करना ये सभी कीट-पतंगों को हिंसा से बचाना है। सत्य - सत्य बोलना, असत्य बोलने से बचना, क्रोध लोभ से बचना जिससे झूठ न बोलना पड़े, अस्तेय - चोरी न करना, बिना आज्ञा के दूसरों की वस्तु न लेना तथा बिना अनुमति के किसी के घर प्रवेश न करना, अपरिग्रह महाव्रत - संग्रह न करना अर्थात आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। 

क्योंकि इससे आसक्ति की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मचर्य - सभी प्रकार की विषय वासना त्याग कर ब्रह्मचर्य का पालन करना। नारी से ज्यादा बात न करना तथा उसे कुदृष्टि से न देखना।

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जैन धर्म ईश्वर में विश्वास नहीं करता। वह ईश्वर को सृष्टि का निर्माता नहीं मानता। महावीर स्वामी का विचार था कि मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान है और जो शक्ति व नैतिकता है, वही भगवान है। 

महावीर स्वामी ने उपदेश दिया कि तपस्या एवं उपवास से मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर सकता है। इसी कारण घोर तपस्या, व्रत रखना, आमरण व्रत आदि का विधान जैन शास्त्रों में हुआ है।

जैन धर्म के अनुसार मनुष्य की मुख्य समस्या दुख है, जिसका मूल कारण कभी तृप्त न होने वाली तृष्णा है। महावीर स्वामी के अनुसार दुख निरोध एवं वास्तविक सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को परिवार छोडक़र भिक्षु बनकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। जैन धर्म में उच्च नैतिक जीवन पर बल दिया गया है। मनुष्य झूठ, चोरी, क्रोध, लोभ व निंदा आदि पाप से दूर रहकर जन्म-मरण के चक्र से बच सकता है। उनका विश्वास था कि मनुष्य को पापी से नहीं, बल्कि पाप से घृणा करनी चाहिए। महावीर स्वामी ने वैदिक धर्म का विरोध किया है। 

उनके अनुसार वेद ईश्वरीय कृति न होकर मानवीय कृति थे, इसलिये वेदों को प्रमाणिक ग्रंथ नहीं माना। उन्होंने वैदिक धर्म में व्याप्त बुराइयों व ब्राह्मणों के प्रभुत्व का खंडन किया। महावीर जी ने सामाजिक समानता की बात कही, अर्थात् वे जाति भेद के विरूद्ध थे। उनका मानना था कि कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र होता है, जन्म से नहीं। उनकी मान्यता थी कि सभी जातियों में एक ही प्रकार की आत्मा है। इसलिए वे सभी मोक्ष के अधिकारी हैं।

स्यादाद अथवा अनेकांतवाद का सिद्धांत जैन धर्म का मूल मंत्र है। इस धर्म की मान्यता है कि प्रत्येक तत्व के अनंत रूप, पक्ष एवं गुण है अर्थात् वस्तु के स्वरूप के बारे में प्रत्येक व्यक्ति के कथन में सत्यता का अंश अवश्य है, परन्तु कोई भी कथन अपने आप में पूर्ण नहीं है। महावीर स्वामी ने अपने शिष्य समुदाय को 4 वर्गों - मुनि, आर्यिका, श्रावण तथा श्राविका में बांटा है। गृहस्थ धर्म का आचरण कर जैन धर्म का पालन करने वाले धर्म के अनुयायियों को श्रावक व श्राविका कहते हैं।


जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र तथा 4 मूल सूत्र हैं। जैन धर्म का मूल साहित्य मागधी भाषा में लिपिबद्ध है। जैन आगम में ‘आचरण सूत्र’, ‘भगवती सूत्र’, कल्प सूत्र प्रसिद्ध हैं। जैन धर्म साहित्य ने भारतीय दर्शन, कला, साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

कालांतर में जैन मतावलंबी दो सम्प्रदायों - श्वेताम्बर तथा दिगम्बर में बंट गये। श्वेताम्बर पंथ के साध व साध्वियां मुँह पर सफेद कपड़े की पट्टी बांधते हैं तथा सफेद वस्त्र धारण करते हैं, जबकि दिगम्बर साधु नग्न रहते हैं। वे किसी पात्र में नहीं, हाथ में खाना-पीना करते हैं। इनमें भी कुछ और सम्प्रदाय हो गये हैं, जो मंदिर मार्गी इत्यादि हैं।
राजस्थान में करौली जिले में महावीर स्वामी का तीर्थ स्थल है। 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने मल्ल प्रदेश के पावा नामक नगर में स्थित कमल सरोवर के निकट अपना शरीर त्याग दिया। महावीर के निर्वाण को जैनियों ने ‘महावीर निर्वाण संवत’ तथा ‘वीर संवत’ नाम से पुकारा है।  महावीर स्वामी के उपदेशों तथा शिक्षाओं को जीवन में उतारकर हम जीवन को सार्थक बना सकते हैं।  





सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य
109 एल ब्लॉक, श्रीगंगानगर

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